ऐतिहासिक कजली मेला



आल्हा-ऊदल की वीरगाथा में कहा गया है 'बड़े लड़इया महुबे वाले, इनकी मार सही न जाए..!' आज से 833 साल पहले दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी चंद्रावल को पाने और पारस पथरी व नौलखा हार लूटने के इरादे से चंदेल शासक राजा परमाल देव के राज्य महोबा पर चढ़ाई की थी. युद्ध महोबा के कीरत सागर मैदान में हुआ था, जिसमें आल्हा-ऊदल की तलवार की धार के आगे वह टिक न सके. युद्ध के कारण बुंदेलखंड की बेटियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन 'कजली' दफन कर सकी थीं. आल्हा-ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक ऐतिहासिक कजली मेले को यहां 'विजय उत्सव' के रूप में मनाने की परम्परा आज भी जीवित है.

महोबा रियासत के चंदेल शासकों के सेनापति रहे आल्हा और ऊदल को देश में कौन नहीं जानता. सन् 1181 में उरई के राजा मामा माहिल के कहने पर राजा परमाल देव ने अपने दोनों सेनापतियों (आल्हा-ऊदल) को राज्य से निष्कासित कर दिया था, जिसके बाद दोनों ने कन्नौज के राजा लाखन राणा के यहां शरण ले ली थी. इसकी भनक लगते ही दिल्ली नरेश पृथ्वीराज ने उस समय महोबा पर चढ़ाई की, जब रक्षाबंधन के दिन डोला में सवार होकर राजकुमारी चंद्रावल (राजा परमाल की बेटी) अपनी सखियों के साथ कीरत सागर में कजली दफन करने पहुंचीं. युद्ध रोकने के लिए पृथ्वीराज ने राजा परमाल से बेटी चंद्रावल, पारस पथरी और नौलखा हार सौंपने की शर्त रखी. यह शर्त दासता स्वीकार करने जैसी थी, इसलिए युद्ध के सिवा कोई चारा नहीं था और कीरत सागर के इसी मैदान में दोनों सेनाओं के बीच जबर्दस्त युद्ध छिड़ जाने पर बुंदेलखंड की बेटियां उस दिन कजली नहीं दफन कर सकीं.

राजकुमारी चंद्रावल ने भी अपनी सहेलियों के साथ विरोधी सेना का मुकाबला किया था. इस युद्ध में परमाल का बेटा राजकुमार अभई शहीद हो गया. जब यह खबर कन्नौज पहुंची तो आल्हा, ऊदल और कन्नौज नरेश लाखन ने साधुवेश में कीरत सागर के मैदान में पहुंचकर पृथ्वीराज की सेना को पराजित कर दिया. इस युद्ध में बुंदेली राजा परमाल की जीत और आल्हा व उनके छोटे भाई ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक स्वरूप हर साल कीरत सागर मैदान में सरकारी खर्च पर ऐतिहासिक कजली मेला 'विजय उत्सव' के रूप में मनाने की परम्परा बन गई है. खास बात यह है कि उस युद्ध के कारण पूरे इलाके में रक्षाबंधन दूसरे दिन मनाया जाता है. इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली बताते हैं, 'आल्हा और ऊदल की वीरगाथा से जुड़ा यह महोबा का कजली मेला हर साल 'विजय उत्सव' के रूप में मनाने की परम्परा है.' वह बताते हैं कि समूचे बुंदेलखंड में महोबा युद्ध के कारण दूसरे दिन कजली दफना कर रक्षाबंधन मनाने का रिवाज है.

​ आठ सौ उन्नीस वर्ष पुराना महोबा का कजली मेला यहां विजय उत्सव के रुप में मनाया जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार तब दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने अपने राज्य विस्तार के क्रम में महोबा की सीमा में सेना का पड़ाव डाल यहां के चंदेल राजा परमाल से युद्ध न करने के बदले राजकुमारी चन्द्रावल, नौलखाहार, पारस पत्थर समेत पांच प्रमुख चीजें सौंपने और उनकी आधीनता स्वीकार करने की खबर भेजी थी।
मातृभूमि पर आए इस संकट से उस समय चंदेल सेनानायकों आल्हा ऊदल ने अपनी छोटी सी सैनिकों की टुकड़ी के साथ सामना किया और सावन की पूर्णिमा को लडे़ गये युद्ध में चौहान सेना को बुरी तरह पराजित करते हुए न सिर्फ खदेड़ दिया था बल्कि पृथ्वीराज चौहान के दो पुत्रों ने इसमें वीरगति भी पाई थी।
युद्ध के दूसरे दिन तब महोबा राज्य में विजय उत्सव मनाया गया। बहनों ने भाइयों को राखी बांधी थी और राजकुमारी चंद्रावल ने सखियों समेत कीरत सागर पहुंच कजली विसर्जन किया था। कवि जगनिक रचित आल्हाखण्ड के भुजरियों की लड़ाई प्रसंग में इसका पूरा वर्णन किया गया है। 













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